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Publication


  Animal Feed Blok


  Bakari Palan


  CRS


  Decomposer


  Khesari


  Paddy Transplanter


  Stiviya


समुदायिक रेडियो स्टे”ान

कृ’िा विज्ञान केन्द्र, बाढ़, पटना

प्रिय किसान बंधुओं कृ’िा विज्ञान केन्द्र, बाढ़, पटना }ारा संचालित सामुदायिक रेड़ियो स्टे”ान, बाढ़ थ्ड बै.ड के 91-2 ड.भ््र पर संचालित हो रहा है। आप सुबह 10ः30 से 12ः00 बजे तक ,वं दोपहर 3ः30 से 5ः00 बजे तक किसानों महिलाओं ,वं बच्चों के लि, कृ’िा ,वं कृ’िा से जुडे़ अन्य व्यवसाय, स्वास्थ्य, स्वच्छता ,वं मनोरंजन कार्यक्रम का प्रसार.ा किया जा रहा है। आप सबों से निवेदन है कि सामुदायिक रेडियो स्टे”ान }ारा प्रसारित कार्यक्रमों को अव”य सुने ,वं अपना सुझाव भी हमे दें ताकि कार्यक्रम को और अधिक लाभप्रद बनाया जा सकें।

अधिक जानकारी के लि,

डाॅ0 वि’.ाु देव सिंह, मो0 9430806435

कृ’िा विज्ञान केन्द्र से संर्पक करें।

वैज्ञानिक विधि से बकरी पालन

हमारे दे”ा में अनेक उन्नत नस्ल की बकरियों का भौÛोलिक स्थिति के अनुरूप उद्भव हुआ है। आज भी अधिका”ां बकरी पालन परंपराÛत तरीकेां से बकरी पालन कर रहें है, जिससे उत्पादन ,वं लाभ बकरियों की उत्पादन {ामता का लÛभÛ 50ः ही मिलता है। प्रस्तुत लेख वैज्ञानिक पद्यति से बकरी पालन को बताता है जिन्हें अपनाकर लाभ-लाÛत अनुपात 4ः1 तक प्राप्त किया जा सकता है।


नस्ल का चुनाव

  1. नस्ल का चुनाव पो’ा.ा प)ति, वातावर.ा, परिस्थिति की ,वं बाजार के अनुरूप हो।
  2. “ाु) नस्ल की बकरियाँ ही रखें।

बीजू बकरे का चुनाव

  1. नर “ाु) नस्ल का, “ाारीरिक रूप से र्पू.ा स्वस्थ ,वं चुस्त हो।
  2. आहार को “ारीर भार में परिवर्तित करने की अधिकतम {ामता हो।
  3. मध्यम ,वं बड़े आकार की नस्लों में नर का भार नौ माह की उम्र तक 20-25 किलो तक होना चाहि,।
  4. मां नस्ल के अनुरूप अधिक दूध देने वाली हो।
  5. नर में अपने Ûु.ाों को अपनी संतति में छोड़ने की {ामता हो।
  6. मिलन कराने पर (90ः) बकरियों को Ûर्भित करता हो।
  7. नर रोÛ Û्रसित ,व संक्रमित रोÛ का वाहक न हो।

बकरी का चुनाव

  1. “ाु) नस्ल की ,वं “ाारीरिक रूप से स्वस्थ होनी चाहि,।
  2. नस्ल के अनुरूप उंचाई- लम्बाई अच्छी होनी चाहि,।
  3. दूध ,वं दुग्ध काल अच्छा होना चाहि,।
  4. प्रजनन {ामता (दो ब्यातों के बीच अन्राल ,वं जुड़वा बच्चे पैदा करने की दर) अच्छी हो।

प्रजनन प्रबंध

  1. पूर्ण परिपक्व होने के बाद ही (डेढ़ से दो वर्ष) बकरे का प्रजनन में उपयोग करें।
  2. एक बकरा 25 से 30 बकरियों को ग्याभिन कराने के लिए पर्याप्त है। 30 से अधिक बकरियों पर बकरों की संख्या बढ़ा देनी चाहिए।
  3. प्रजनक बकरे को एक से डेढ़ वर्ष बाद बदल दें। जिससे अन्तः प्रजनन के दुश्परिणामों से बचा जा सके।
  4. मध्यम आकार की नस्लों में प्रथमवार बकरियों को गर्भित कराते समय उनका शरीर भार 16 किलो एवं उम्र 10 माह या अधिक हो।
  5. बड़े आकार की नस्लों मे प्रथमवार बकरियों को गर्भित कराते समय उनका शरीर का भार 20 किलों एवं उम्र 12 माह होनी चाहिए।
  6. वातावरण को ध्यान में रखते हुए उŸार-मध्य भारत में बकरियों को अक्टूबर- नवम्बर एवं मई-जून माह में ग्याभिन करायें।
  7. कम प्रजनन एवं उत्पादन क्षमता वाली (10-20ः) एवं रोग ग्रसित मादाओं को प्रतिवर्ष निष्पादन करते रहना चाहिए।
  8. मादाओं को गर्मी में आने पर 10-16 घंटे बाद नर से मिलन करायें।

पोषण प्रबंध

  1. नवजात बच्चों को पैदा होने के आधे घंटे के अन्दर खीस पिलायें। इससे उन्हें रोग प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त होती है।
  2. बच्चों केा 15 दिन का होने पर हरा चारा एवं रातब मिश्रण खिलाना आरंभ करें तथा 3 माह का होने पर माँ का दूध पिलाना बन्द कर दें।
  3. मांस उत्पादन के लिए नर बच्चों को 3 से 9 माह की उम्र तक शरीर भार का 2.5 से 3ः तक समुचित मात्रा में ऊर्जा (मक्का, जौ, गेंहूँ) एवं प्रोटीन (मूंगफली, अलसी, तिल, बिनौला की खल) अवयव युक्त रातब मिश्रण देवें। इस रातब मिश्रण में ऊर्जा की मात्रा लगभग 60ः एवं प्रोटीन युक्त अवयव लगभग 37ः, खनिज मिश्रण 2ः एवं नमक 1ः होना चाहिए।
  4. वयस्क बकरियों (एक साल से अधिक) एवं प्रजनन के लिए पाले जाने वाले नरों में ऊर्जायुक्त अवयबों की मात्रा लगभग 70ः होनी चाहिए। पोषण मंे खनिजांे एवं लवणों का नियमित रूप से शामिल रखें।
  5. जिन बकरियों का दूध उत्पादन लगभग 500 मि.ली./दिन हो उन्हें 250 ग्राम, एक लीटर दूध पर 500 ग्राम रातब मिश्रण दें। इसके उपरांत प्रति एक लीटर अतिरिक्त दूध पर 500 ग्राम अतिरिक्त रातब मिश्रण देंवें।
  6. बकरियों के बाड़े में छगाई करने के लिए चारा वृक्ष जैसे नीम, पीपल, बेर, खेजड़ी, पाकर, बबूल खूब लगायें।
  7. दूध देने वाली गर्भवती बकरियों (आखिर के 2 से 3 माह) एवं बच्चों (3 से 9 माह) को 200 से 350 ग्राम प्रतिदिन रातब मिश्रण दें।
  8. हरे चारे के साथ सूखा चारा अवश्य दें। अचानक आहार व्यवस्था में बदलाव न करें एवं अधिक मात्रा में हरा एवं गीला चारा न दें।

आवास प्रबंध

  1. एक वयस्क बकरी को 3-4 वर्गमीटर खुला एवं 1-2 वर्गमीटर ढका क्षेत्रफल की आवश्यकता होती है।
  2. पशु गृह में पर्याप्त मात्रा में धूप, हवा एवं खुली जगह हो।
  3. सर्दियों में ठंड से एवं बरसात में बौछार से बचाने की वयवस्था करें।
  4. पशु गृह को साफ एवं स्वच्छ रखें।
  5. छोटे बच्चों को सीधे मिटटी के सम्पर्क में आने से बचने के लिए फर्श पर सूखी घास या पुआल बिछा दें तथा उसे तीसरे दिन बदलते रहें।
  6. वर्षा ऋतु से पूर्व एवं बाद में फर्श के उपरी सतह की 6 इंच मिटटी बदल दें।
  7. छोटे बच्चों, गर्भित बकरियों एवं प्रजननक बकरे की अलग आवास व्यवस्था करें।
  8. ब्यांत के बाद बकरी तथा उसके बच्चों को एक सप्ताह तक साथ रखें।

स्वास्थ्य प्रबंध

  1. वर्ष्ाा ऋतु से पहले एवं बाद में ;साल में दो बारद्ध कृमि नाश्ाक दवा पिलायें।
  2. रोÛ निरोधक टीके ;मुख्यतः पी.पी.आर.ए ई.टी.ए पोक्सए एफ. एम. डी. इत्यादिद्ध समय से अवश्य लÛवायें।
  3. बीमार पश्ाुओं को छटनी कर स्वस्थ पश्ाुओं से अलÛ रखें एवं तुरंत उपचार कराएँ।
  4. आवश्यकतानुसार बाह्य परजीवी के उपचार के लिए व्यूटोक्स ;0.1 प्रतिश्ातद्ध का घ्ाोल से स्नान करायें।
  5. नियमित मल परीक्ष्ाण्ा ;विश्ोष्ाकर छोटे बच्चोंद्ध करायें।

सामान्य प्रबंधन

  1. बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद साफ कपड़े से उसके नथुनों की सफाई करें।
  2. नवजात बच्चों की नाभिनाल को “ारीर 3 सेंमी नीचे बाँधकर उसके लÛभÛ ,क सेमी नीचे काटकर टिंचर आयोडीन 2-3 दिन तक लÛायें।
  3. प्रत्येक बकरी की पहचान के लि, टेंÛिंÛ आव”यक करें जिससे उसकी वं”ाावली, खान-पान, आदि की सटीक जानकारी मिल सके।
  4. बकरिकयों का साफ पानी दिन में (2-3बार) पिलायें।
  5. जिन बकरिययों के नीचे दूध कम हो उनके बच्चों को उस बकरी के आस-पास ब्यायी बकरियों का दूध पिला,।
  6. जिन बकरियों का खुर बढ़ जाते हैं उनकों समय पर काट दें।
  7. प्रतिमाह बच्चों के “ारीर भार को तोलते रहें जिससे उनकी बढ़वार व स्वास्थ्य का पता चलता रहे।

बाजार प्रबंधन

  1. जानवरों को मांस के लि, “ारीर भार के अनुसार बेचंे।
  2. सामान्यतया मांस के बाजार भाव का 55 प्रति”ात “ारीर पर बाजार में भाव मिलता है।
  3. “ाु) नस्ल ,वं उच्च Ûु.ावŸाा के जानवरों को प्रजनक बकरी फार्मो को बेचने पर अधिक लाभ होता है।
  4. मांस उत्पादन के लि, पाले Û, नरों को लÛभÛ 1 वर्’ा की उम्र पर बेचें दें। इसके उपरांत “ाारीरिक भार वृ)ि बहुत कम (10-15 Û्राम प्रतिदिन) ,वं पो’ा.ा खर्च अधिक रहता है।
  5. बकरी पालक संÛठित होकर उचित भाव पर बकरियों को बेंचे।
  6. बकरों को वि”ो’ा त्योहार (ईद, दुर्Ûा पूजा) के समय पर बेचन पर अच्छा मुनाफा होता है।


कृषि विज्ञान केन्द्र, बाढ़, पटना

पूर्ण फीड ब्लाॅकः एक बहु-पोषाक आहार

पशुओं का अच्छा स्वास्थ्य उन्हें प्रदान की गई फीड की गुणवŸाा पर निर्भर है। पर्ण फीड ब्लाॅक (सी.एफ.बी) एक पूरा नवाचार है जो कि हमारे किसानों को डेयरी पशुअेां के संतुलित आहार में सहायता कर सकते है और जिसे दूध उत्पादन और डेयरी फाॅर्मिंग से होने वोले लाभ में वृद्धि होती है। एक आर्थिक रूप से व्यवहारिक तकनीक के अलावा इसमें आसान परिवहन, सस्ता भंडारण, बहु पोषण संबंधी कमी को सुधारने, आसान संचालन करने और भोजन की लागत में कमी के रूप में स्थानीय रूप से उपलब्ध फडी समाग्री का उपयोग किया जा सकता है।

फीड ब्लाॅको बनाने की प्रक्रियाः

पूर्ण फीड ब्लाॅक में आम तौर निम्नलिखित रचना होती हैः 50 भागों पुआल, मक्का चूर्ण 20 भाग, चोकर 50 भाग, खल्ली 12.5 भाग, 1 भाग गुड़, 1 भाग खनिज मिश्रण, और 0.5 भाग नमक, जो जानवरों की रख-रखाव की आवश्यकता को पूरा कर सकते है।

पूर्ण फीड ब्लाॅक के लाभ

  • इस तकनीक से हम खाद्य, चारा के घाटे को दूर करने के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध पशु चारा संसाधनों का उचित उपयोग कर सकते है।
  • इसमें जानवरों के पोषक तत्वों की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता है।
  • यह पशुओं में बहु पोषक तत्वों की कमी को सुधारने के अतिरिक्त लाभ देता है।
  • फीड़ अप व्यय भी कम करता है क्योकि पशु चयनात्मक भोजन करने में असमर्थ है।
  • यह गुणवता वाले फीड को वर्ष भर उपलब्ध कराता है। और लागत प्रभावी है।
  • यह भरी मात्रा में स्त्रोतो के भंडारण और परिवहन मे सस्ता है और समय और श्रम की बचत भी है।
  • यह खुराक की खराब गुणवता के उपयोग को बढ़ाता है और अपरंपरागत फीड की सुखदाता केा बढ़ाता है।
  • पूर्ण फीड ब्लाॅक प्राकृतिक आपदाओं के क्षेत्र में लागत प्रभावी है।

  • आहार अवयव मात्रा (ः)
    सूखा चारा 50
    मक्का चूर्ण 20
    चेकर 15
    खल्ली 12.5
    छुआ गुड़ 01
    मीन मिक्शचर 01
    नमक 0.5
    कुल 100

    फीड़ ब्लाॅक खिलाने की विधि

    गाय और भैंस - 02 फीड ब्लाॅक सुबह 02 फीड ब्लाॅक शाम सामान्य पशु आहार के साथ 05 फीड ब्लाॅक सुबह 05 फीड ब्लाॅक शाम जब पशु आहार में केवल फीड ब्लाॅक दिया जाए।

    बकरी और भेड- 01 फीड ब्लाॅक सुबह और 01 फीड ब्लाॅक 0.5 फीड ब्लाॅक सुबह और 0.5 फीड ब्लाॅक शाम

    सुझाव

    पशु को उसकी इच्छा अनुसार खिलाना बेहतर होगा।



    धान के प्रमुख रोग एवं निदान

    तना छेदक कीट

    तना छेदक धान का प्रमुख हानिकारक कीट है। इसका प्रकोप धान की नर्सरी से लेकर बाली आने की अवस्था तक देखा जाता है। भारत में इस कीट की छः प्रजातियाँ पाई जाती है पर पीला तना छेदक कीट (स्कीरपोफाना इंतरतुलास) सर्वाधिक व्यापक है। इस कीट की इल्ली तने मंे छेदक भीतरी भाग को खाकर नुकसान पहुँचाती है। कंसे का सूखना अथवा पुष्प गुच्छों (बालियों) का सफेद एवं दाना रहित होना इस कीट के प्रकोप क लक्षण है।

    शस्य विधियाँ

  • गीष्मकाल में खेत की गहरी जुताई करें।
  • धान की रोपाई के बाद पौधशाला में बची पौध को अलग कर दें।
  • तना छेदक कीट के प्रकोप के समय को ध्यान रखते हुए धान रोपाई समय में यथेष्ट परिवर्तन करे।
  • मृदा परीक्षण रिपोर्ट अथवा लीफ कलर चार्ट के आधार पर नत्रजन युक्त उर्वरक का प्रयोग करें।
  • कीट की निगरानी के लिए प्रति एकड़ तीन फिरोमोन ट्रेप का प्रयोग करे।
  • मुख्य खेत में

  • दानेदार कीटनाशी कारटाप हाटड्रोक्लोराइड 4 जी, 24 कि.ग्रा. प्रति हे0 या कार्बोफ्युरान 3 जी, 30 कि.ग्रा. प्रति हे0 का प्रयोग फसल की वनस्पतिक वृद्धि की अवस्था में करें।
  • पर्णीय छिड़काव हेतु, कार्बोसलफान 24 ई.सी., 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी या क्लोरोपायरिफाँस 20 ई.सी., 3 मि.ली. प्रति लीटर पानी या कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 50 एस.पी., 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर प्रयोग करे।

  • गंगई अथवा गालमिज

    इस कीट का प्रकोप धान में कंसे फूटने या वनस्पतिक वृद्धि की अवस्था मंे होता है। कीटग्रस्त पौधें से सामान्य कंसे/पŸिायों के विकसित होने के स्थान पर लम्बी खोखली नालीदार (प्याज की पŸाी जैसी) संरचना दिखाई देती है जिसे सिल्वर श्ूाट कहते है। इन कंसे में बालियाँ नहीं लगती है। देरी से रोपी गई धान में इस कीट के प्रकोप की संभावना अधिक होती है। इस कीट से समस्याग्रस्त क्षेत्र या प्रकोप के आर्थिक क्षति स्तर पर होने की दशा में, दानेदार कीटनाशियों जैसे फोरेट 10 जी, 10 कि.ग्रा. प्रति हे0 या फिपरोनिल 0.3 जी., 24 कि.ग्रा. प्रति हे0 का प्रयोग किया जा सकता है।


    माहू (फुदका)

    धान की फसल पर भूरा माहू, सफेद पीठ वाला माहू तथा हरा माहू का प्रकोप देखा जाता है। यह कीट पौधों से रस को चूसते है जिससें पौधों की वृद्धि तथा विकास प्रभावित होता है। भूरा माहू, धान के तने के निचले भाग में, पानी की सतह के उपर मौजूद रहकर पौधें से रस चूसता है। इसका प्रकोप धान के खेत में एक स्थान से आरंभ होकर गोल आकार में फैलते हुऐ आगे के पौधों को प्रभावित करते हुए बढ़ता जाता है। कीट का उग्र प्रकोप होने पर प्रभावित पौधें सूखने लगते है। तथा काले-कत्थई भूरे रेग के दिखाई देते है इस प्रभावित क्षेत्र को हापर बर्न कहते है। सफेद पीठ वाला माहू धान के तने के उपरी भाग में रहकर, पौधों का रस चूसता है। उग्र प्रकोप होने पर ग्रसित पौधा पीले-भूरे रंग का हो जाता है। हरा माहू कीट का प्रकोप सितम्बर-अक्टूबर मास में अधिक होता है। यह कीट भी पौधें से रस चसकर वृद्धि विकास को प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त यह कीट टंुग्रो रोग का वाहक होता है। यदि धान के पौधें की रोपाई/बुआई पास-पास की गई हो, नत्रजनयुक्त उर्वरकों का अधिक प्रयोग, खेतों में लगाताार पानी का स्थिर होना, आर्द्रता का अधिक होना आदि दशाओं में इन सभी प्रकार के माहू की प्रजनन की दर बढ़ जाती है। और फसल को अधिक नुकसान होता है।

    प्रबंधन

    रासायनिक विधियाँ :- थायोमेथाक्सम 24 डब्लू.जी., 1 ग्राम प्रति 4 लीटर पानी या इथोफेनप्राक्स 10 ई.सी. का 1 मिली प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। धान के तने व पानी सतह के उपर पौधें के निचले भागों में कीटनाशी पहुँच सके इस प्रकार छिड़काव करें।


    पŸाा मोड़क कीट

    पŸाा मोड़क कीट की चार प्रजातियाँ धान की फसल पर आक्रमण करती है पर नफालोक्रोसिस मेडिनालिस प्रजाति द्वारा अधिक नुकसान पहुँचाया जाता है। इस कीट का प्रकोप होने पर पŸाी सफेद धारीदार एवं मुड़ी हुई दिखाई देती है। इल्ली, लार द्वारा स्त्रावित रेशमी धागों से पŸाी के किनारों अथवा दो पŸिायों को जोड़कर खोल बना लेती है और उसके अंदर रहकर पŸाी के हरे भाग (क्लोरोफिल) को खाती है। जिसके कारण पŸिायों में सफेद धारियाँ बन जाती है और अधिक प्रकोप होने पर पŸिायाँ सूख जाती है।

    प्रबंधन

    रासायनिक विधियाँ :- कीट की संख्या आर्थिक क्षति स्तर से अधिक होने पर निम्न में से किसी एक कीटनाशी का छिड़काव किया जा सकता है।

  • क्यूनालफाॅस 25 ई.सी., 2-3 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से
  • थायोमेथोकजाम 25 डब्लू.जी., 2 ग्राम प्रति चार लीटर पानी
  • इमिडाक्लोप्रिड 27.9 एस.एल., 1 मि.ली. प्रति दो लीटर पानी

  • गंधी कीट

    गंधी कीट के शिशु एवं वयस्क दोनो ही पौधों विशेषकर बालियों से रस चूस कर धान की फसल को नुकसान पहुँचाते है। दोनों में दूध भरने की अवस्था में यह कीट अधिक सक्रिय हो जाता है और बालियों से दूधिया रस चूसना प्रारंभ कर देते है इस कारण बाली में दाना नही भरता अथवा कमजोर और सिकुडे़ दाने बनते है। इस प्रकार यह कीट धान की उपज और गुणवŸाा दोनों को हानि पहुँचाता है। धान की फूल वाली अवस्था मंे मौसम के हल्की वर्षा वाला तथा गर्म होने पर कीट संख्या तेजी से बढ़ती है और दानों में दूध भरने की अवस्था (सितम्बर-अक्टूबर) में इस कीट के उग्र प्रकोप की संभावना अधिक हो जाती है।

    प्रबंधन

    रासायनिक विधियाँ:- कीट की संख्या आर्थिक क्षति स्तर से अधिक होने पर निम्न में से किसी एक कीटनाशी का प्रयोग किया जा सकता है।

  • धान की दूधिया अवस्था के प्रारंभ में इथोफेनप्राक्स, 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी
  • मिथाइल पाराथियान 5ःधूल, 25 किलोग्राम प्रति हे0 की दर से छिड़काव

  • हिस्पा कीट

    हिस्पा कीट का प्रकोप खरीफ ऋतु में ज्यादा होता है। यह कीट धान की वनस्पतिक वृद्धि अवस्था में सक्रिय होकर पौधें की पŸिायों को क्षतिग्रस्त करते है। कीट की इल्ली (ग्रब) और वयस्क दोनों ही फसल को हानि पहुँचाते है। वयस्क कीट, पŸिायों के हरे भाग (क्लोरोफिल) को खुरचकर खाता है जिससे पŸिायों में मुख्य शिर्राओ के समानान्तर छोटी पतली सफेद धारियाँ बन जाती है जबकि इल्ली (ग्रब) पŸाी की बाहरी सतह के नीचे सुरंग बनाकर हरे भाग (क्लोरोफिल) को खाती है जिससे पŸिायों में सफेद धब्बे (फफोले) बन जाते है। कीटग्रस्त फसल की पŸिायाँ सफेद -भूरी दिखाई देती है।

    प्रबंधन

    रासायनिक विधियाँः- कीटों की संख्या आर्थिक क्षति स्तर से अधिक होने पर निम्न में किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें।

  • थायमेथाक्जाम 25 डब्लू.जी., 1 ग्राम प्रति 4 लीटर पानी
  • क्युनालफाँस 25 ई.सी., 2-3 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से
  • क्लोरोपायरिफाॅस 20 ई.सी., 3 मि.ली. प्रति लीटर पानी
  • ट्राइजोफाॅस 40 ई.सी., 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी
    क्लोथाइनिडिन 50 डब्लू. डी.जी., 1 ग्राम प्रति पम्प (12-15 लीटर)


  • मधुमक्खी पालनः एक लाभकारी व्यवसाय

    शहद उत्पादन एवं मधुमक्खी पालन का भारत में एक लम्बा इतिहास है। जंगलों तथा चट्टानों पर रहने वाले प्राचीन भारतीय द्वारा चखी गयी पहली मिठाई शायद शहद ही रही होगी। मधुमक्खी पालन ने प्राचीन भारतीयों के जीवन एक अद्वितीय स्थान प्राप्त कर लिया था। शहद को महिलाओं, पशु, भूमि और फसलों की उर्वरता के लिए एक जादुई पदार्थ के रूप में माना गया है।

    मधुमक्खी पालन एक कृषि आधारित उद्यम है जो कि किसानों को अधिक आय अर्जित करने में सहायता करता है। जंगलों से तो शहद संग्रहण लम्बे समय से चला आ रहा है। परन्तु शहद तथा शहद से बने उत्पादोंकी बढती हुई मांग के परिणाम स्वरूप मधुमक्खी पालन वर्तमान परिवेश में एक व्यवहार्य उद्यम के रूप में उभर कर आया है। शहद तथा मोम मधुमक्खी पालन के आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण उत्पाद है। मधुमक्खी फूलों के रस को शहद में बदलने तथा उस शहद को अपने छŸाों में एकत्रित करने का कार्य करती है। मधुमक्खी पालन फूलों में परागण करने वाले महत्वपूर्ण वाहकों में से एक है।

    शहद उत्पादन के लिए प्रमुख क्षेत्रों में उप हिमालयी इलाके, आसन्न तलहटी, उष्ण-कटिबंधीय वन और राजस्थान, उŸार प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उडीसा और आंध्र प्रदेश के जंगल तथा खेत है। भारत में मधुमक्खी पालन मुख्य रूप से वन आधारित माना गया है। बहुत सी प्राकृतिक प्रजातियों के पौधे मधुमक्खियों के लिए पीयूष तथा पराग प्रदान करते है। इस प्रकार शहद उत्पादन के लिए कच्चा माल प्रकृति द्वारा मुफ्त उपलब्ध है।

    मधुमक्खी के छते के लिए न तो अतिरिक्त स्थान की आवश्यकता होती है और न ही वे किसी भी निवेश के लिए कृषि या पशुपालन के साथ प्रतिस्पर्धा करते है। कोई भी व्यक्ति सप्ताह में कुछ घंटे मधुमक्खी पालन को दे कर आसानी से मधुमक्खी पालन कर सकता है। इसलिए मधुमक्खी पालन एक अंशकालीन व्यवसाय करने के लिए अनुकूल है। किसान इसको समग्रित खेती का एक हिस्सा बना सकते है।

    भातीय शहद की निर्यात बाजार में अच्छी मांग है। आधुनिक संग्रह, भंडारण, मधुमक्खी पालन के उपकरण, शहद प्रसंस्करण संयंत्रों और बाॅटलिंग तकनीकों के उपयोग के साथ संभावित निर्यात बाजार का उपयोग किया जा सकता है। वह व्यक्ति जो सीमित स्थान में कोई बड़ा निवेश किये बिना कृषि में भाग लेना चाहता हो तो मधुमक्खी पालन उसके लिए एक अच्छा फैसला है।

    मधुमक्खी पालन एक आय बढ़ाने की गतिविधि है

  • मधुमक्खी पालन में कम समय, धन और बुनियादी ढांचे के निवेश की आवश्यकता है।
  • शहद और मोम का उत्पादन थोडे़ से कृषि क्षेत्र से किया जा सकता है।
  • यह उद्यम अन्य कृषि उद्यम के साथ संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं करता है।
  • मधुमक्खी पालन के सकारात्मक पारिस्थितिक परिणाम भी हैं जैसे मधुमक्खियाँ बहुत से फूलों (सूरजमुखी) में परागण करके उनकी उपज को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पारंपरिक तरीके के द्वारा शहद शिकारी बहुत सी जंगली काॅलोनियों को नष्ट कर रहे है। घर में मधुमक्खी पालन करके इसे रोका जा सकता है।
  • मधुमक्खी पालन व्यक्ति या समूह द्वारा शुरू किया जा सकता है।
  • शहद और मोम के लिए भी बाजार संभावनाएँ अधिक है।
  • संसाधन और संभावना

    शहद उत्पादन के लिए पीयूष एंव पराग, कच्चे माल के रूप में पौधों से मिलता है। भारत में लगभग 500 प्रजातियों के पौधे (जंगली/खेती किए जाने वाले पौधे) शहद निर्माण के लिए पीयूष तथा पराग उपलब्ध कराते है। भारत में चार प्रजातियों की मधुमक्खियों का पालन किया जाता है। हाल के कुछ वर्षो में विदेशी मधुमक्खियों का पालन भी प्रारंभ किया गया है। देशी प्रजाति एपिस सेरेना है व विदेशी मक्खी एपिस मेलीफेरा के नाम से जानी जाती है। छŸाों का निर्माण कई प्रकार के स्वदेशी एवं पारम्परिक छŸाों, मिटटी, और विभिन्न आकार तथा आकृति के हो सकते है। आधुनिक मधुमक्खी पालन में छते का निर्माण लकड़ी के बने फ्रेम (खांचों) में किया जाता है। जिन्हें बी बाक्स कहते हैं। कुछ युवा इन बक्सों को बनाने का भी उद्यम कर सकते हैं।

    मधुमक्खी पालन की प्रौद्योगिकी

    मधुक्खी पालन व्यवसाय का मुख्य लक्ष्य शहद उत्पादन है। आधुनिक मधुमक्खी पालन में मोम, मधुमक्खियों द्वारा एकत्र किया गया पराग, मधुमक्खी विष, राॅयल जैली तथा साथ ही साथ पैक मधुमक्खी, रानी मक्खी एं एकल काॅलानी का भी उत्पादन किया जाता है। यह सब स्थानीय संसाधनों का प्रयोग करके तथा स्थानीय वातावरण के अनुकूल द्वारा तथा मधुमक्खियों के उचित प्रबंधन से संभव है। आधुनिक मधुमक्खी पालन, मधुमक्खी पालन के उपकरणों के भारी प्रयोग तथा शहद प्रसंस्करण उपकरणों द्वारा गुणवŸाा वाले शहद उत्पादन को सुनिश्चित करता है।

    मधुमक्खिीयों का समय के अनुसार प्रबंधन विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। हालाँकि बुनियादी प्रबंधन के तरीके समान है। धारा, प्रबंधन, भोजन कराने के तरीके, नियंत्रण और मधुमक्खी विकारों, रोगों का इलाज के उचित उपाय तथा मजबूत मधुमक्खी काॅलोनी बनाने के तरीके एक जैसे हैं। विशेष प्रबंधन तकनीक जैसे रानीमक्खी पालन, काॅलोनी गुणन के लिए प्रवास जैसी विशेष क्रियाएँ मधुमक्खी पालक द्वारा पर्याप्त ज्ञान और अनुभव प्राप्त करने पर अपनायी जाती है। कई प्रकार की मधुमक्खियों का राज्य स्तर पर सीमित क्षेत्र में उत्पादन उपलब्ध है। कुल शहद उत्पादन में लगभग 60ः योगदान रबर का पौधा करता है। जामुन, नीम, लीची, नीलगिरी, इमली, काजू के पेड़, विभिन्न किस्मों की फसलों के स्रोत के बीच सरसों, तिल, नाइजर, सूरजमुखी, तिपतिया घास, धनिया, नींबू, सेब, चेरी और अन्य शीतोष्ण फलों के पेड़, नारियल के पेड़ और काॅफी बागान पराग के बगीचों में प्राकृतिक परागण करने हेतु किसान मधुमक्खी पालन अच्छे फल उत्पादन के लिए भी करते है।

    मधुमक्खियों का समझना

    मधुमक्खियों काॅलोनी का निर्माण जीवित मधुमक्खियांे के द्वारा जिसमे अण्डों का समूह भी शामिल होता है। मधुमक्खी का छŸाा मधुमक्खी पालक के पास उपस्थित लकड़ी के बक्से, खोखले पेड़ या किसी अन्य संरचना में भी हो सकता है। मधुमक्खियों का एक झुण्ड छŸाा नही कहलाता है। रानी मक्खी, मधुमक्खी काॅलोनी का दिल मानी जाती है। तथा छŸो में सभी में सभी मक्खियों की जननी होती है। रानी मक्खी का पेट शंकु के आकार का होता है। रानी मक्खी सक्रिय रूप से अंडे देने का कार्य ही करती है जिससे मधुमक्खियों की संख्या में इजाफा होता है। छŸो में बाँझ मादाएं श्रमिक होती है। जिनकी संख्या लगभग 60000 प्रति छŸाा होती है। श्रमिक अपने नाम के अनुसार रानी को भोजन कराना, छŸो की साफ- सफाई करना, एक दूसरे को संवारना, पीयूष तथा पराग एकत्रित करके उनसे शहद बनाना तथा छŸो को गर्म या ठण्डे बनाये रखना आदि काम करती है।

    नर मधुमक्खी की प्रवृति कुछ आलसी होती है। नर मधुमक्खी कुछ कार्य नहीं करते है। नर मधुमक्खी केवल भोजन करते है तथा दोपहर के बाद रानी मक्खी से मिलने की प्रतीक्षा करते है। नर मधुमक्खी अपनी बड़ी, काली आँखों, जो उसके सर के अधिकांश भाग को घेरे रहती है, से पहचानी जाती है। नर मधुमक्खी की छाती एवं पेट श्रमिक मधुमक्खी की तुलना में मजबूत होता है। नर मधुमक्खी की शक्तिशाली मांसपेशियां तथा आँखें दोनों ही इनकी संभोग उघन को सफल बनाती है।

    प्रत्येक मधुमक्खी अपना जीवन चक्र अंडे से प्रारंभ करती है। जो कि मोम से बना शठकोणीय उष्मीयित्र कोशिका में होता है। इन कोशिकाओं में अंडे तीन दिन तक रहते है। इसके बाद इन अंडों से छोटे-छोटे, सफेद, कीड़ों के आकार के लार्वा निकलते है। श्रमिक छŸो में संरक्षित भोजन इन लार्वा को खिलाते है। तथा ये लार्वा 6 दिन में बहुत तेजी से बढ़ते है। 6 दिन के बाद लार्वा पूर्ण रूप से अपनी कोशिका के बाहर आ जाते है। इस समय श्रमिक कोशिकाओं को मोम से भर देते है। जल्द ही लार्वा, प्यूपा में बदल जाते है

    जो कि लार्वा तथा व्यस्क के बीच की संक्रमणकालीन अवस्था है। धीरे-धीरे प्यूपा के पंख, पैर, आँखे, श्रंगिकाए आदि विकसित होने लगते है। प्यूपा अवस्था की अंतिम स्थिति पर वे कोशिका की मोम से बनी टोपी को चबाकर बाहर आ जाते है। बाहर आने के बाद यह एक व्यस्क मधुमक्खी कहलाते है।

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